मनःस्थिति बदलें, परिस्थिति अपने आप बदल जाएगी ….
दोस्तों,
ऐसा अधिकतर होता है कि हम अपने वर्तमान से , आज से सन्तुष्ट नहीं होते हैं ! हमें लगता है कि आज हम जहाँ हैं उससे कहीं ज्यादा अच्छी जगह ,और ज्यादा ख़ुशी भरे माहोल में हो सकते थे !
चिन्ता,तनाव ,परेशानी ,कामों का बोझ ,जिम्मेदारियां इन सबको हम अपने ऊपर हावी कर लेते हैं ! हमें लगता है कि सारी परेशानी और दुःख तो हमारे पास ही है , उस दूसरे आदमी को देखो ,कितना खुश और सुखी है ! हमें दुसरे की थाली में ज्यादा घी दिखता है ! लेकिन विडम्बना है कि वो दूसरा आदमी भी वैसा ही सोचता है ,जैसा आप सोच रहे हैं ! उसे भी आपकी थाली में ही ज्यादा घी दिख रहा है !
हम सब अपने वर्तमान से दूर सुनहरे और सुख भरे भविष्य कि मृग-मरीचिका में भटक रहे हैं ! हम सुख ,शांति ,संतोष इन सब को बाहर , दूसरी जगह पाना चाहते हैं ! लेकिन ये सब बाहर कभी मिलते नहीं , मिल ही नहीं सकते क्योंकि सुख शांति संतोष बाहरी नहीं आंतरिक कारणों पर निर्भर होते हैं !
इस मृग-मरीचिका में हम दूसरे की जगह लेना चाहते हैं ,और दूसरा हमारी ! और फिर जगह भी बदल जाती है लेकिन मनःस्थिति नहीं बदलती ! फिर हमें लगता है की दूर के ढोल ही सुहाने थे ! इससे अच्छे तो हम पुरानी जगह ,पुराने माहोल में ही थे !
दोस्तों ,हमारा मन हमें कभी वर्तमान में खुश और संतुष्ट नहीं होने देता ! ऐसा अधिकतर होता है कि एक ही परिस्थिति में एक इंसान बहुत खुश और संतुष्ट महसूस करता है वहीँ दूसरा दुःख के पहाड़ तले दबा रहता है ! परिस्थिति समान है पर मनस्थिति की भिन्नता व्यक्ति को अलग अलग सुख दुःख को महसूस कराती है !
एक बार एक व्यक्ति अपने गुरु के पास गया ! बोला ,गुरुदेव मैं अपनी पत्नी से बहुत परेशान हूँ , क्योंकि वो खाना अच्छा नहीं बनाती है ! और मैं अच्छे खाने का ,खूब खाने का शौक़ीन हूँ ! वो अपनी तरफ से अच्छा बनाने की कोशिश तो करती है , लेकिन पता नहीं क्यों मुझे स्वाद ही नहीं आता ! मुझे बहुत तला ,भुना ,मिर्च-मसालेदार,चटपटा खाना पसंद है ! और उसे यह सब बनाना नहीं आता ! अब आप ही बताइए मैं क्या करूँ , मुझे तो कभी कभी लगता है की उसे तलाक ही दे दूँ !
गुरुदेव ने सुना ,मुस्कुराये ,फिर बोले - बेटा ऐसा कर ,आज से अगले 10 दिनों तक तू सिर्फ मूंग की दाल की खिचड़ी खा ,वो भी सिर्फ उबाल कर ,न उसमे नमक हो ,न मिर्च और ना ही घी,तेल ! इसे मेरी गुरु-आज्ञा मान ! और हाँ ,खिचड़ी अपने ही हाथ से बनाना !
उस आदमी का तो मुहं ही खुला का खुला रह गया ! बोला गुरुदेव ,मैं तो भूखा ही मर जाऊँगा ,पर ऐसा खाना कैसे खा पाऊंगा !
खैर ,गुरु-आज्ञा , माननी तो थी ही ! पहले दिन खिचड़ी बनी ही नहीं ! चावल कच्चे रह गए ! दूसरे दिन बनी तो खायी नहीं गई , जल गई थी ! तीसरे दिन बनी पर बड़ी मुश्किल से खाई गई ,वो भी भूख की वजह से ! ऐसे ही 10 दिन 10 साल की सजा जैसे बीते ! वो 11 वे दिन भागा -भागा गुरु के पास गया ,बोला गुरुदेव ,अब क्या आज्ञा है !
गुरु ने कहा ,अब जा और अपनी पत्नी के हाथ का खाना -खाना शुरू कर !
5-7 दिन बाद गुरु उसके घर गए ,बोले -बेटा , तू आया नहीं अपनी पत्नी के खाने की शिकायत करने !
वो बोला , गुरुदेव ,मैं माफ़ी चाहता हूँ , इसी पत्नी के हाथ का खाना अब मुझे कितना स्वादिष्ट लगता है ,मैं बता नहीं सकता ! मेरी मनःस्थिति ही गलत थी , जो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया ! वो मेरे लिए कितने प्रेम और समर्पण भाव से भोजन बनाती है ! उसकी मैं कद्र ही नहीं करता था ,हमेशा कमियां ही निकालता रहता था ! आपके इन 10 दिनों की सजा या आदेश ने मेरी आँखें खोल दीं हैं !
तो दोस्तों ,पत्नी भी वो ही है ,खाना भी वो ही है ! पर चूँकि अब मनःस्थिति बदल गई है तो परिस्थिति भी बदल गई है !
तो क्यों ना हम भी बाहर सुख ,ख़ुशी खोजने की जगह अपनी मनस्थिति को ,अपने विचारों को ,सोचने के ढंग को थोडा बदल कर देखें ! क्या पता हम असंख्य खुशियों और परमात्मा की कृपा ,अनुदानों के बीच ही बैठे हों ,और वो हमें दिख नहीं रही हों ! है ना ?
तो आइये मनःस्थिति बदलें उसे सकारात्मक करें , परिस्थिति तो फिर अपने आप ही बदल जाएगी !
डॉ नीरज यादव
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सर आप ने गागर में सागर भरने वाली बात की है, आप का यह लेख आधुनिक मनुष्य के लिए बहुत ही जरूरी है. मैने एक बार स्टीव पावलीना जी का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने बताया था कि उन्हें यह ई-मेल बहुत आते है कि वह अपने लेखों को छोटा करके उन्हें उपयोही बनाए. मुझे यह बात Achhibatein पर मिली. आप की एक बात बहुत अच्छी लगी कि आप एक कहानी के साथ लेख को ओर भी ज्यादा उपयोगी बना देते हैं. सर लगे रहीये.
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